आज शाम बादल कुछ ऐसे खुले जैसे अचानक कपड़ोंसे भरी सन्दूक खुल जायेँ,
ऊन सी मोटी मोटी बूँदें सड़क को डुबोने लगी,
और तुम्हारी दी हुयी वह सफ़ेद कमीज कीचड से लथ पथ होने लगी ।
31 Monday Oct 2016
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inआज शाम बादल कुछ ऐसे खुले जैसे अचानक कपड़ोंसे भरी सन्दूक खुल जायेँ,
ऊन सी मोटी मोटी बूँदें सड़क को डुबोने लगी,
03 Thursday Nov 2011
Posted Triveni
inMy attempt at the three sentence poetry format made popular by Gulzar:
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चेहरा वही हैं, नयी झुर्रियों से सजाया हैं;
दिल भी वोही हैं, पुराने ज़ख्मों से सजाया हैं;
कई दिनों से एक ही ख्वाब देख रहा हूँ,
अपने बिस्तर पर , गहरी नींद सो रहा हूँ,
दिन में देखे ख्वाब भी कहीं पूरे होते हैं |
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